*हमारी संस्कृति बारूद नहीं, बाँसुरी है..! पर्व संस्कृति/जयराम शुक्ल l*

    *हमारी संस्कृति बारूद नहीं, बाँसुरी है..!
पर्व संस्कृति/जयराम शुक्ल l*


हाँ मैं पटाखे और आतिशबाजी के खिलाफ हूँ। इसमें मुझे ऐसी कोई भी बात नजर नहीं आती जो किसी त्योहार की गरिमा को बढ़ाती हो। वैसे भी यह सनातनी वैदिक संस्कृति का हिस्सा नहीं। हमारी संस्कृति टिमटिमाते हुए दीयों की है। सूरज शाम को ढलने के साथ ही दीयों को अपना उत्तराधिकार सौंप जाता है अँधेरे से लड़ने के लिए। दीया निर्बलों का संबल है। दीया गरीब गुरबों की आशा की लौ है जो उम्मीद जगाता है कि अँधेरा छटेगा, सुबह होगी, सूरज निकलेगा।


पटाखे चरित्र से हिंसक हैं। उनकी आवाज डराती है। घोसलों में विश्राम कर रहे पक्षी भयाक्रान्त हो जाते हैं। पशु जिंदगी की खैर मनाने लगते हैं। उनके लिए पटाखे और शिकारियों की गोली की आवाज में कोई अंतर नहीं होता। हम जिस दौर-ए-जहाँ में निबह रहे हैं वहां पटाखे भी बम का आभास देते हैं। 


वर्षों पहले एक बार इन्हीं दिनों दिल्ली में था। कमला नगर मार्केट में धमाके के बाद धमाके हुए तो पहले लोगों को लगा कि यह दीपावली की अगवानी है। जब लाशें बिछने लगी तब पता चला कि दहशतगर्दों के बम धमाके हैं। सो पटाखे चाहे दीवाली के हों या बारात के दहला देते हैं। 


आतिशबाजी भी नहीं सुहाती। सेकंडों की रंगीन रोशनी आँखों को चुँधियाने के अलावा कुछ नहीं, सिवाय आसमान में जहरीली गैस छोड़ने के। पक्षियों को वैसे भी शहर से दरबदर कर दिया,जो बचे हैं पटाखे और आतिशबाजी उनके लिये शिकारी हाँके की तरह हैं।


आतिशबाजी और पटाखों ने न जाने कितने वन्यजीवों की जान ली होगी। शिकार कथाएं बताती हैं कि जंगलों में किस तरह पटाखे फोड़कर और आतिशी रोशनी से डराकर वन्य पशुओं को उनके आश्रय से निकाला जाता था फिर घात लगाए शिकारी उनका निशाना लगाते थे। 


हमारे विन्ध्य के जंगलों में देशी राजे महाराजे विदेशी लाटसाहबों को शिकार खेलने बुलाते थे और पटाखों से डराकर बाघों को उनकी मांद से बाहर निकालते थे फिर उनके शिकार का जश्न होता था। सो पटाखे खून से सने हैं,आतिशबाजी आह से लथपथ। मैं इसलिए इसके खिलाफ हूँ।


इतिहास साक्षी है कि बारूद ने ही देश में मुगल संस्कृति की बुनियाद रखी। कंपनी बहादुर अँग्रजों की बंदूकों ने फिर हमें गुलाम बनाया। बारूद कभी हमारे लिए शुभ नहीं रहा। पटाखों के पेट में भी वही बारूद है जो बाबर की तोपों में था। खानवा की लडा़ई से ही देश के भाग्य पर ग्रहण लगा। एक ओर बाबर की सेना दूसरी राणा सांगा के रण बाँकुरे। पूरी लडा़ई में राणा सांगा आगे रहे। पस्त पड़ रहे बाबर ने मोर्चे पर तोपें लागा दी। राणा सांगा के सामने इससे निपटने का विकल्प नहीं था। राणा के रणबांकुरे भाला,तलवार, तीर-कमान के भरोसे थे। बारूद जीत गया तलवारें हार गईं।  दिल्ली के तख्त-ए-ताऊस में मुगल सल्तनत की ताजपोशी हुई। 


बाबर पहला श़ख्स था जो भारत में तोप और बारूद के साथ आया। इसके बाद अँग्रेज तोपों का छोटा संस्करण बंदूक लेकर आऐ। देश की बागडोर तलवार की नोक से तोप के मोहडे़ से होते हुए बंदूक की नोक पर आ गई। बारूद ने बार-बार देश की किस्मत को फेरा है। फिर भी हम बारूद की गंध में अपने सनातन की उत्सवधर्मिता क्यों तलाशते हैं।


आम जिंदगी में वैसे भी इतना चिल्लपों है कि चैन नहीं। ऊपर से ये धूमधडाम। पहले तो एक दिन ही रहता था। अब दीपावली से लेकर देवप्रबोधिनी तक। फिर शादी ब्याह का सीजन। फिर कोई चुनावी हार जीत। फिर किसी लोकतंत्र बहादुर का जन्मदिन। बहाने बहुत हैं दूसरों का चैन हरने के लिए। ये बाजार के चोंचले हैं। पटाखे आतिशबाजी उसी की देन है। 


मुगल जब जंग जीतकर लौटते थे तो तोपें चलवाते थे आतिशबाजी होती थी। उन्हीं के दौर में दीपावली के साथ मुगलों का ये सांस्कृतिक फ्यूजन हुआ। तब से चलता ही चला आ रहा है। 


दीपावली के पहले एनजीटी जब पटाखों को लेकर एडवाइजरी जारी करती है तो कोहराम मच जाता है। कुछ लोग सड़कों पर उतरकर चिल्लाने लगते हैं कि यह हमारी संस्कृति पर हमला है। दरसअल ये 2000 करोड़ रुपये के बाजार संस्कृति पर हमला है। चालबाज धंधेबाजों ने इसे हिंदू संस्कृति से जोड़ दिया।


हमारी संस्कृति में बारूद कभी रहा ही नहीं। बाँसुरी रही है जो कृष्ण के महारास में उल्लास की अभिव्यक्ति करती थी। दीपावली कृष्ण संस्कृति यानी कृषि संस्कृति का विस्तार है। यह नागरसंस्कृति का पर्व है ही नही। गांवों से होता हुआ शहर पहुंचा है। यह पर्व खरीफ के धनधान्य का पर्व है। धनधान्य के साथ लक्ष्मी मैय्या का आगमन होता है। लक्ष्मी मैय्या सफाई पसंद है, इसलिए यह स्वच्छता का पर्व है।


 कूड़े में दरिद्रता रहती है सो उसके विसर्जन का पर्व है।  एनजीटी ने भले ही दिल्ली के प्रदूषण की स्थितियों को देखते हुए पटाखों पर प्रतिबंध की बात की हो पर मेरी दृष्टि से नेक और उचित निर्णय है, इसका दायरा समूचे देश तक होना चाहिए..आप भी सहमत होंगे।